गायत्री-गो सेवा-साधना संस्थान एक परिचय

गायत्री-गो सेवा-साधना संस्थान

(योग एवं पारंपरिक चिकित्सा शोध केन्द्र)

गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट, बैसपाली-रायगढ़, (छ.ग.) रजि. 2/बी-113 (4)/2017-18

सम्बद्ध :— युगतीर्थ-गायत्री तीर्थ

(श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, शान्तिकुञ्ज-हरिद्वार, उत्तराखण्ड-भारत)

एक परिचय :

इस संस्थान के सम्बन्ध में यथा नाम के अनुरुप गायत्री-साधकों, गो-सेवकों एवं जिज्ञासु आप सभी वेब-पाठकों को वह सब कुछ जानने की प्रबल एवं तीव्र जिज्ञासा होगी। जिसके बारे में प्राय: सब कुछ सविस्तार जानने, मार्गदर्शन प्राप्त करने के साथ ही इसे व्यावहारिक मूत्र्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से यह वेबसाइट लॉन्च हुआ है, निश्चित ही आप सभी की ऐसी जिज्ञासा सहज एवं स्वाभाविक है।

यह संस्थान (रजि. गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट बैसपाली-रायगढ़, छ.ग.) क्या है, इसका उद्देश्य, स्वरूप और योजना क्या है? आदि जिज्ञासाओं के बारे में जानने से पहले यहाँ यह जानना अत्यावश्यक एवं सर्वथा उचित होगा कि अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक-संरक्षक, प्रवर्तक-उद्घोषक एवं नियामक के बारे में सबसे पहले अवगत हों। इसके बाद संभव है बहुत हद तक जिज्ञासाओं की आपूर्ति स्वत: ही हो जायेगी।

तो चलिए, सबसे पहले जानते हैं—

विराट अखिल विश्व गायत्री परिवार एवं उसके संस्थापक-संरक्षक का

एक संक्षिप्त परिचय

इतिहास में कभी-कभी ऐसा होता है कि अवतारी सत्ता एक साथ बहुआयामी रूपों में प्रकट होती है एवं करोड़ों ही नहीं, पूरी वसुधा के उद्धार-चेतनात्मक धरातल पर सबके मनों का नये सिरे से निर्माण करने आती है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है जो युगों-युगों में गुरु एवं अवतारी सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई, अस्सी वर्ष का जीवन जीकर एक विराट् ज्योति प्रज्ज्वलित कर उस सूक्ष्म ऋषि चेतना के साथ एकाकार हो गयी और युग परिवर्तन को सन्निकट लाने परोक्ष एवं कारण चेतना में सघन-संव्याप्त-घनीभूत है। परमवंदनीया माताजी शक्ति का रूप थीं जो कभी महाकाली, कभी माँ जानकी, कभी माँ शारदा एवं कभी माँ भगवती के रूप में शिव की कल्याणकारी सत्ता का साथ देने आती रही हैं। उनने भी सूक्ष्म में विलीन हो स्वयं को अपने आराध्य के साथ एकाकार कर ज्योतिपुरुष का एक अंग स्वयं को बना लिया। आज दोनों सशरीर हमारे बीच नहीं है, किन्तु नूतन सृष्टि कैसे ढाली गयी, कैसे मानव गढऩे का साँचा बनाया गया, इसे शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस, गायत्री तपोभूमि, अखण्ड-ज्योति संस्थान एवं युगतीर्थ आँवलखेड़ा जैसी स्थापनाओं तथा संकल्पित सृजन सेनानीगणों के, वीरभद्रों की करोड़ों की संख्या के रूप में देखा जा सकता है।

गुरुसत्ता का सूक्ष्म एवं कारण स्वरूप : युग संजीवनी-युग साहित्य—

परम पूज्य गुरुदेव का वास्तविक मूल्यांकन तो इतिहासविद, मिथक लिखने वाले करेंगे, किन्तु यदि उनको आज भी साक्षात कोई देखना या उनसे साक्षात्कार करना चाहता हो तो उन्हें उनके द्वारा अपने हाथ से लिखे गये उस विराट परिमाण में साहित्य के रूप में युग संजीवनी के रूप में देखा सकता है जो वे अपने वजन से अधिक भार के बराबर लिख गये। इस साहित्य में संवेदना का स्पर्श इस बारीकी से हुआ है कि लगता है लेखनी को उसी की स्याही में डुबो कर लिखा गया हो । हर शब्द ऐसा जो हदय को छूता, मन को, विचारों को बदलता चला जाता है। लाखों करोड़ों के मनों के अंत:स्थल को छूकर उनका कायाकल्प कर दिया। रूसों के प्रजातंत्र की, कार्ल माक्र्स के साम्यवाद की क्रान्ति भी इसके समक्ष बौनी पड़ जाती है। उनके मात्र इस युग वाले स्वरूप को लिखने में लगता है कि एक विश्वकोश तैयार हो सकता है, फिर उस बहुआयामी रूप को जिसमें वे संगठनकर्ता, साधक करोड़ों के अभिभावक, गायत्री महाविद्या के उद्धारक, संस्कार परम्परा का पुनर्जीवन करने वाले, ममत्व लुटाने वाले एक पिता, नारी जाति के प्रति अनन्य करुणा बिखेरकर उनके ही उद्धार के लिए धरातल पर चलने वाला नारी जागरण अभियान चलाते देखे जाते हैं, अपनी वाणी के उद्बोधन से एक विराट गायत्री परिवार एकाकी अपने बलबूते खड़े रहते दिखाई देते हैं तो समझ में नहीं आता, क्या-क्या लिखा जाय, कैसे छन्दबद्ध, लिपिबद्ध किया जाय, उस महापुरुष के जीवनचरित को।

स्थूल अवतरण एवं बाल्यकाल से ही उनमें दिव्यता, उत्कृष्टता की झलक-झाँकी—

आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967 (20 सितम्बर 1911) को स्थूल शरीर से आँवलखेड़ा ग्राम जनपद आगरा जो जलेसर मार्ग पर आगरा से पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है, में जन्मे श्रीराम शर्मा जी का बाल्यकाल-कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिताश्री पं. रूपकिशोर जी शर्मा आसपास के दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भागवत कथाकार थे, किन्तु उनका अंत:करण मानवमात्र की पीड़ा से सतत विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा। जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुत: अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में एक अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवाकर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उस महिला ने स्वस्थ होने पर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिये। एक अछूत कहलाने वाली जाति का व्यक्ति जो उनके आलीशान घर में घोड़ों की मालिश करने आता था, एक बार कह उठा कि मेरे घर कथा कौन कराने आएगा, मेरा ऐसा सौभाग्य कहाँ। यह सुन नवनीत जैसे हृदय वाले पूज्यवर उसके घर जा पहुँचे एवं पूरे विधि-विधान से कथाकर पूजा की, उसको स्वच्छता का पाठ सिखाया, जबकि सारा गाँव उनके विरोध में बोल रहा था।

गुरुसत्त्ता का किशोरवय एवं उच्चादर्श—

किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उनने चलाना आरम्भ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी, किन्तु उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि जो जन्मजात प्रतिभा सम्पत्र हो वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है। हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्फलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय, यह सिखाया।

पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में उनके घर की पूजा स्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आगार थी, जब से महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। वसंत की वेला में, सूक्ष्म रूप में अदृश्य छायाधारी उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ। उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में संपन्न क्रियाकलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं। उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषि सत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं । चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हें तीन संदेश दिए-1. गायत्री महाशक्ति के चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस महा-पुरश्चरण जिन्हें आहार के कठोर तप के साथ पूरा करना था।

2. अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन-जन तक इसके प्रकाश को फैलाने के लिए समय आने पर ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के 1938 में प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार-क्रांति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकटा।

3. चौबीस महापुरश्चरणों के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना।

मिशन एवं गुरुसत्ता अर्थात् एक दूसरे का पर्याय—

यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक दूसरे के पर्याय हैं, की जीवन यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक हमारी वसीयत और विरासत में लिखते हैं कि— प्रथम मिलन के ही दिन समर्पण सम्पन हुआ। गुरु सत्ता द्वारा विशेष रूप से दो बातें कही गईं— संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोडक़र निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामथ्र्य विकसित होगी जो विशुद्धत: परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।

राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हें उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने तोडक़र परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोडक़र, अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पडऩे की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक-स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पारकर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये । छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी वे जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अंग्रेजी सीखकर लौटे।

आसन-सोल जेल में वे श्री जवाहर लाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से-मु_ी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घण्टा समयदान एवं बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मु_ी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्मघट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनाता चला गया, जिसका आधार था प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।

परतंत्र भारत की स्वतंत्रता में अहम् स्थूल भूमिका :—

स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जन आक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रांंतिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्त शासकों के प्रति असहयोग जाहिर होता था। नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन से पीठ दिखाकर भागना नहीं। बाद में फिरंगी सिपाहियों के जाने पर लोग उठाकर घर लेकर आये। जरारा आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं, जबकि फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे। उनने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तब सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्य चकित रह गये। उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला। अभी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं। लगानबन्दी के आँकड़े एकत्र करने के लिए उनने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्य मंत्री श्री गोविन्दवल्लभ पंत द्वारा गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये । बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आंकणे ब्रिटिश पार्लियामेण्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए । कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा उन्हें सरकार ने अपना प्रतिनिधि भेजकर पचास वर्ष बाद ताम्रपत्र देकर शांतिकुज में सम्मानित किया । उसी सम्मान व स्वाभिमान के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन उनने प्रधान मंत्री राहत फण्ड, हरिजन फण्ड के नाम समर्पित कर दीं। वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?

सांस्कृतिक-आध्यात्मिक महती भूमिका एवं अखण्ड-ज्योति का प्रकाशन—

1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरु हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव ऋषिवर रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक आध्यात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेडिय़ों से मुक्त किया जाय, यह निर्देश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उनने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया जब आगरा में सैनिक समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्री कृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत स्वाध्यायरत रह कर उनने अखण्ड ज्योति नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया। पहला प्रयास था,सो जानकारियाँ कम थीं। अत: पुन: सारी तैयारी के साथ विधिवत् 1940 की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमश: उनके अध्यवसाय घर- घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदय स्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह विभिन्न भाषाओं में छप रही है जिसे करोड़ों व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है।

पत्रिका के साथ-साथ मैं क्या हूँ जैसी पुस्तकों का लेखन आरम्भ हुआ, स्थान बदला, आगरा से मथुरा आ गये, दो-तीन घर बदलकर घीयामण्डी में जहाँ आज अखण्ड ज्योति संस्थान है, आ बसे। पुस्तकों का प्रकाशन व कठोरता से तपश्चर्या, ममत्व विस्तार तथा पत्रों द्वारा जन-जन के अंत:स्थल को छूने की प्रक्रिया चालू रही। उनका साथ देने आ गयीं परमवंदनीया माताजी भगवती देवी शर्मा, जिन्हें भविष्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अपने आराध्य इष्ट गुरु के लिए निभानी थी। उनके मर्मस्पर्शी पत्रों ने, भाव भरे आतिथ्य, हर किसी को जो दु:खी था-पीडि़त था, दिये गये ममत्व भरे परामर्श ने गायत्री परिवार का आधार खड़ा किया, इसमें कोई सन्देह नहीं। यदि विचारक्रांति में साहित्य ने मनोभूमि बनायी तो भावात्मक क्रांति में ऋषियुग्म के असीम स्नेह ने, ब्राह्मणत्व भरे जीवन ने शेष बची भूमिका निभायी।

प्राण संजीवनी युग साहित्य, ग्रन्थ एवं परिजनों के नाम अखण्ड-ज्योति पाती—

‘युग साहित्य’ एवं ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका लोगों के मनों को प्रभावित करती रही, इसमें प्रकाशित ‘गायत्री चर्चा’ स्तम्भ से लोगों को गायत्री व यज्ञमय जीवन जीने का संदेश मिलता रहा, साथ ही एक आना से लेकर छह आना सीरज की अनेकानेक लोकोपयोगी पुस्तकें छपती चली गयीं। इस बीच हिमालय के बुलावे भी आये, अनुष्ठान भी चलता रहा जो पूरे विधि विधान के साथ 1953 में गायत्री तपोभूमि की स्थापना, 108 कुण्डीय यज्ञ व उनके द्वारा दी गयी प्रथम दीक्षा के साथ समाप्त हुआ। गायत्री तपोभूमि की स्थापना के निमित्त धन की आवश्यकता पड़ी तो परम वंदनीया माताजी, जिनने हर कदम पर अपने आराध्य का साथ निभाया, अपने सारे जेवर बेच दिये, पूज्यवर ने जमींदारी के ब्राण्ड बेच दिये एवं जमीन लेकर अस्थायी स्थापना कर दी गयी। धीरे-धीरे उदारचेताओं के माध्यम से गायत्री तपोभूमि एक साधनापीठ बन गयी। 2400 तीर्थों के जल व रज की स्थापना वहाँ की गयी, 2400 करोड़ गायत्री मंत्र लेखन वहाँ स्थापित हुआ, अखण्ड अग्नि हिमालय के एक अति पवित्र स्थान से लाकर स्थापित की गयी जो अभी तक वहाँ यज्ञशाला में जल रही है। 1941 से 1971 तक का समय परमपूज्य गुरुदेव का गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान में सक्रिय रहने का समय है । 1956 में नरमेध यज्ञ, 1958 में सहस्रकुण्डीय यज्ञ करके लाखों गायत्री साधकों को एकत्र कर उनने गायत्री परिवार का बीजारोपण कर दिया । कार्तिक पूर्णिमा 1958 में आयोजित इस कार्यक्रम में दस लाख व्यक्तियों ने भाग लिया, इन्हीं के माध्यम से देश भर में प्रगतिशील गायत्री परिवार की दस हजार से अधिक शाखाएँ स्थापित हो गयीं। संगठन का अधिकाधिक कार्यभार पूज्यवर परमवंदनीया माताजी पर सौंपते चले गये एवम् 1959 में पत्रिका का संपादन उन्हें देकर पौने दो वर्ष के लिए हिमालय चले गये, जहाँ उन्हें गुरुसत्ता से मार्गदर्शन लेना था, तपोवन नंदनवन में ऋषियों से साक्षात्कार करना था तथा गंगोत्री में रहकर आर्ष ग्रन्थों का भाष्य करना था। तब तक वे गायत्री महाविद्या पर विश्वकोश स्तर की अपनी रचना गायत्री महाविज्ञान के तीन खण्ड लिख चुके थे, जिसके अब तक प्राय: पैंतीस संस्करण छप चुके हैं। हिमालय से लौटते ही उनमें महत्वपूर्ण निधि के रूप में वेद, उपनिषद्, स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण, योगवाशिष्ठ, मंत्र महाविज्ञान, तंत्र महाविज्ञान जैसे ग्रन्थों को प्रकाशित कर देव संस्कृति की मूल थाती को पुनर्जीवन दिया। परमवंदनीया माताजी ने उन्हीं वेदों को पूज्यवर की इच्छानुसार 1991-92 में विज्ञान सम्मत आधार देकर पुनर्मुद्रित कराया एवं वे आज घर-घर में स्थापित हैं।

युग निर्माण-सत्संकल्प घोषणा-पत्र एवं ऋषि परम्परा का बीजारोपण—          

युग निर्माण योजना व युग निर्माण सत्संकल्प के रूप में मिशन का घोषणा पत्र 1963 में प्रकाशित हुआ। तपोभूमि एक विश्वविद्यालय का रूप लेती चली गयी तथा अखण्ड ज्योति संस्थान एक तप:पूत की निवास स्थली बन गया, जहाँ रहकर उनने अपनी शेष तप-साधना पूरी की थी, जहाँ से गायत्री परिवार का बीज डाला गया था। तपोभूमि में विभिन्न शिविरों का आयोजन किया जाता रहा, पूज्यवर स्वयं छोटे-बड़े जन सम्मेलनों, यज्ञायोजनों के द्वारा विचार क्रांति की पृष्ठभूमि बनाते रहे, पूरे देश में 1970-71 में पाँच 1008 कुण्डीय यज्ञ आयोजित हुए। स्थायी रूप से विदाई लेते हुए एक विराट सम्मेलन (जून 1971) में परिजनों में विशेष कार्य भार सौंप, परम वंदनीया माताजी को शांतिकुंज, हरिद्वार में अखण्ड दीप के समक्ष तप हेतु छोड़ कर स्वयं हिमालय चले गये । एक वर्ष बाद वे गुरुसत्ता का संदेश लेकर लौटे एवं अपनी आगामी बीस वर्ष की क्रिया पद्धति बतायी। ऋषि परम्परा का बीजारोपण, प्राण प्रत्यावर्तन संजीवनी व कल्प-साधना सत्रों का मार्गदर्शन जैसे कार्य उनने शांतिकुंज में सम्पन्न किये।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना अपनी हिमालय की इस यात्रा से लौटने के बाद ब्रह्मवर्चस शोध-संस्थान की थी, जहाँ विज्ञान और अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों पर शोध कर एक नये धर्म वैज्ञानिक धर्म के मूलभूत आधार रखे जाने थे। इस सम्बन्ध में पूज्यवर ने विराट् परिमाण में साहित्य लिखा, अदृश्य जगत के अनुसंधान से लेकर मानव की प्रसुप्त क्षमता के जागरण तक साधना से सिद्धि एवं दर्शन-विज्ञान के तर्क, तथ्य प्रमाण के आधार पर प्रस्तुतीकरण तक। इसके लिए एक विराट ग्रन्थागार बना व एक सुसज्जित प्रयोगशाला। वनौषधि उद्यान भी लगाया गया तथा जड़ी बूटी, यज्ञविज्ञान तथा मंत्र शक्ति पर प्रयोग हेतु साधकों पर परीक्षण प्रचुर परिमाण में किये गये। निष्कर्षों ने प्रमाणित किया कि ध्यान साधना मंत्र चिकित्सा व यज्ञोपैथी एक विज्ञान सम्मत विधा है। गायत्री नगर क्रमश: एक तीर्थ, संजीवनी विद्या के प्रशिक्षण का एकेडमी का रूप लेता चला गया एवं जहाँ 9-9 दिन के साधना प्रधान, एक-एक माह के कार्यकर्ता निर्माण हेतु युग शिल्पी सत्र सम्पन्न होने लगे।

प्रज्ञा संस्थानों के रूप में मिशन का विकास-विस्तार एवं गुरुसत्ता का सूक्ष्मीकरण में प्रवेश—

कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ। स्थान-स्थान पर शक्तिपीठे विनिर्मित हुईं, जिनके निर्धारित क्रियाकलाप थे- सुसंस्कारिता, आस्तिकता संवर्धन एवं जन जागृति के केन्द्र बनना । ऐसे केन्द्र जो 1980 में बनना आरंभ हुए थे, प्रज्ञा संस्थान शक्तिपीठ-प्रज्ञामण्डल-स्वाध्याय मंडल के रूप में पूरे देश व विश्व में फैलते चले गये। आज 108 से अधिक देशों में गायत्री परिवार की शाखाएँ फैल गयीं हैं, 4600 से अधिक भारत में निज के भवन वाले संस्थान विनिर्मित हो गये हैं, वातावरण गायत्रीमय होता चला जा रहा है।

परमपूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण में प्रवेश कर 1985 में ही पाँच वर्ष के अंदर अपने सारे क्रिया कलापों को समेटने की घोषणा कर दी थी। इस बीच कठोर तप साधना कर मिलना-जुलना कम कर दिया तथा क्रमश: क्रिया कलाप परमवंदनीया माताजी को सौंप दिये । राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों, विराट दीप यज्ञों के रूप में नूतन विधा को जन-जन को सौंप कर राष्ट्र देवता की कुण्डलिनी जगाने हेतु उनने अपने स्थूल शरीर छोडऩे व सूक्ष्म में समाने की, विराट से विराटतम होने की घोषणा कर गायत्री जयन्ती 2 जून 1990 को महाप्रयाण किया। सारी शक्ति वे परमवंदनीया माताजी को दे गये व अपने व माताजी के बाद संघशक्ति की प्रतीक लाल मशाल को ही इष्ट आराध्य मानने का आदेश देकर ब्रह्मबीज से विकसित ब्रह्मकमल की सुवास को देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के रूप में आरंभ करने का माताजी को निर्देश दे गये।

एक विराट श्रद्धांजलि समारोह व शपथ समारोह जो हरिद्वार में सम्पन्न हुए, में लाखों व्यक्तियों ने अपना समय समाज के नव निर्माण, मनुष्य में देवत्व के उदय व धरती पर स्वर्ग लाने का गुरु सत्ता का नारा साकार करने के निमित्त देने की घोषणा की। परमवंदनीया माताजी द्वारा भारतीय-संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने, गायत्री रूपी संजीवनी घर-घर पहुँचाने के लिए पूज्यवर द्वारा आरम्भ किये गये युगसंधि महापुरश्चरण की प्रथम व द्वितीय पूर्णाहुति तक विराट अश्वमेघ महायज्ञों की घोषणा की गयी। वातावरण के परिशोधन, सूक्ष्मजगत के नव निर्माण एवं सांस्कृतिक व वैचारिक क्रांति के निमित्त सौर ऊर्जा के दोहन द्वारा विशिष्ट प्रयोगों के माध्यम से विशिष्ट मंत्राहुतियों द्वारा सम्पन्न किये गये इन अश्वमेधों ने सारी विश्ववसुधा को गायत्री व यज्ञमय, वासंती उल्लास से भर दिया । स्वयं परमवंदनीया माताजी ने अपनी पूर्व घोषणानुसार चार वर्ष तक परिजनों का मार्गदर्शन कर सोलह यज्ञों का संचालन स्थूल शरीर से किया व फिर भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितम्बर 1994 महालय श्राद्धारंभ वाली पुण्य वेला में अपने आराध्य के साथ एकाकार हो गयीं। उनके महाप्रयाण के बाद दोनों ही सत्ताओं के सूक्ष्म में एकाकार होने के बाद मिशन की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ती चली गयीं एवं जयपुर के प्रथम अश्वमेध यज्ञ (नवम्बर 92) से छब्बीसवें अश्वमेध यज्ञ शिकागो (यू. एस. ए. जुलाई 95) तक प्रज्ञावतार का प्रत्यक्ष रूप सबको दीखने लगा है।

देव संस्कृति के सतत् विकास-विस्तार हेतु वरिष्ठों को महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी—

गुरुसत्ता के आदेशानुसार सतयुग के आगमन तक 108 महायज्ञ देवसंस्कृति को विश्वव्यापी बनाने हेतु संपन्न होने थे। युग संधि महापुरश्चरण की अंतिम पूर्णाहुति उसी के बाद हुई। प्रथम पूर्णाहुति नवम्बर 1995 में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर युगपुरुष पूज्यवर की जन्मभूमि आँवलखेड़ा में मनायी गई। उनके द्वारा लिखे गये समग्र साहित्य के वाङ्मय का जो सत्तर खण्डों में फैला है, विमोचन भी यहीं सम्पन्न हुआ। विनम्रता एवं ब्राह्मणत्व की कसौटी पर खरे उतरने वाले वरिष्ठ प्रज्ञापुत्र ही उनके उत्तराधिकारी कहे जायेंगे, यह गुरुसत्ता का उद्घोष था एवं इस क्षेत्र में बढ़ चढक़र आदर्शवादी प्रतिस्पर्धा करने वाले अनेकानेक परिजन अब उनके स्वप्नों को साकार करने आगे आ रहे हैं। हम बदलेंगे-युग बदलेगा का उद्घोष दिग-दिगन्त तक फैल रहा है एवं इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य, सतयुग की वापसी का स्वप्न साकार होता चला जा रहा है, यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

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इस प्रकार हमने अब तक हमारी गुरुसत्ता का धरती पर अवतार चेतना के रूप में अवतरण और उनके क्रियाकलापों-लीला संदोहों के बारे में सविस्तार यह जाना कि किस तरह हर युग में अवतारी चेतना अवतार रूप में प्रकट हो वसुधा का कायाकल्प करती है। राम एवं कृष्ण, बुद्ध आदि अवतारी सत्ता हर युग में प्रकट हो यदा-यदा ही धर्मस्य…..को चरितार्थ करती रही हैं।

इस युग में भी महत् सत्ता की परम चेतना प्रज्ञावतार के रूप में धराधाम में युगीन अनास्था एवं अचिंत्यजन्य चिंतन की विकृतियों के शमन हेतु अपने अंग-अवयवों, सहचरों सहित अवतरित हुई। धरती के भाग्य और भविष्य को नये सिरे से गढऩे, सूक्ष्म सत्ताओं के कृत संकल्प को मूत्र्त रूप प्रदान करने हेतु धरती पर निष्कलंक प्रज्ञावतार का प्राकट्य हुआ। सनातन धर्म-भारतीय संस्कृति के माता-पिता गायत्री और यज्ञ अर्थात् सद्चिंतन और सत्कर्म के माध्यम से प्राणीमात्र एवं विश्वमानवता के कल्याणार्थ अगणित विभूतियाँ, प्रतिभाएँ नये युग के नूतन निर्माण में निरंतर संलग्र हैं।

जिस तरह अखिल विश्व गायत्री परिवार का उद्भव, विकास एवं विस्तार हुआ और इक्कीसवीं सदी में नित-निरंतर व्यापक होता हुआ चला जा रहा है उसके मूल में जाने पर हम पाते हैं कि यह पूर्णत: साधना की धुरि में अवलम्बित हो सद्चिन्तन और सद्कर्म का ही सत्परिणाम है। जैसा कि सद्चिंतन अर्थात् गायत्री और सद्कर्म अर्थात् यज्ञ। गायत्री और यज्ञ को और भी सरल, सहज रूप में इस तरह समझा जा सकता है कि गायत्री अर्थात् परमसत्ता का मातृरूप जिसकी उपासना, साधना और आराधनाकर मानव जीवन को सफल-सार्थक बनाया जा सकता है, इसी जीवन में मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।

गुरुसत्ता की युगीन उपासना, साधना और आराधना

उपासना—          

इस युग में उपासना का तात्पर्य है परम सत्ता के विविध रूपों के मातृरूप की अभ्र्यथना। माँ-बेटे जैसे रिश्ते के रूप में मातृसत्ता की उपासना अर्थात् उसके पास बैठना। पास बैठने का मतलब है उसके रंग में रंग जाना जैसे बर्फ के पास बैठने से ठण्डक एवं आग के पास बैठने से गर्मी का अनुभव होता है। ठीक उसी तरह परमचेतना के मातृरूप वेदमाता, देवमाता एवं विश्वमाता गायत्री का सामिप्य-सान्निध्य लाभ। उगते सूर्य का ध्यान एवं दर्शन उपासना का प्रत्यक्ष रूप है। इस माध्यम से उस महत् सत्ता के गुणों को आत्मसात किया जाना उपासना की एक पद्धति है। इस प्रकार गुरुसत्ता द्वारा सद्बुद्धि का निर्दिष्ट गुरुमंत्र-गायत्री महामंत्र के माध्यम से पास बैठने की क्रिया-पद्धति ही उपासना कहलाती है।

साधना—            

साधना से आशय है उपासनायुक्त जीवन साधना। गायत्री महामंत्र की उपासना-साधना से मानव जीवन निरंतर सार्थकता की ओर अग्रसर होता जाता है। साधना का शाब्दिक अर्थ वस्तुत: जीवन साधना से है। अर्थात् अपने अनगढ़ जीवन को जिस भी माध्यम से सुगढ़ता प्रदान किया जा सके, वह सारी प्रक्रियाएँ साधना अर्थात् जीवन साधना के अंतर्गत आती हैं। इस दृष्टि से अपने अवगुणों को साहस पूर्वक उखाड़ फेंकने साथ ही उनकी जगह सद्गुणों को स्थापित करने का निरंतर सच्चा सत्प्रयास ही जीवन साधना है।

आराधना—

अर्थात् उपासना-साधना से विकसित एवं संचित सामथ्र्य का यथेष्ट सुनियोजन। इस स्थूल समस्त संसार की लोक आराधना एक माली की भाँति विश्वउद्यान की देखभाल की जिम्मेदारी ईश्वर के राजकुमार एवं वरिष्ठ पुत्र मनुष्य को ही सौंपी गई है। अत: इस विश्वउद्यान को जितना सुन्दर-सुरम्य, सुरभित-सुगंधित बनाया जा सके, मनुष्य का निरंतर सत्प्रयास एवं पुरुषार्थ आराधना का ही एक रूप है। यह मनुष्य का एक परम कत्र्तव्य ही नहीं, महत्त्वपूर्ण दायित्व भी है। इस प्रकार उपासना, साधना एवं आराधना को एक योग के रूप में भी देखा एवं समझा जा सकता है। यह है उनका योग वाला पक्ष। अब आगे जानते हैं उनका तप प्रधान पक्ष।

गुरुसत्ता का तप प्रधान पहलू :-

उक्त योग अर्थात् उपासना, साधना एवं आराधना के लिए दो महत्त्वपूर्ण तप की भी महती आवश्यकता   होती है। इस योग को साधने के लिए दो तप हैं- समयदान एवं अंशदान। मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त समय अर्थात् मानव जीवन परमसत्ता द्वारा सर्वश्रेष्ठ उपहार के रूप में प्राप्त है। मनुष्य योनि को इसीलिए सुर दुर्लभ योनि भी कहा गया है। मानव की इस सुन्दरतम कृति पर परमात्मा को नाज है कि उसने उसकी प्रतिकृति मानवदेह प्रदान कर उस पर बड़ा उपकार किया है। अत: वह भी उसी की तरह विश्वमानवता हितार्थाय उपकार का प्रतिदान समय रहते प्रतिउपकार के रूप में ही बरते। समय समाप्त अर्थात् जीवन समाप्त, जब तक जीवन है तभी तक समय है। इस तथ्य को अंगीकार करते हुए उसी का दिया, उसी को अर्पित के आशय से अपने समय का महत्त्वपूर्ण क्षण एवं अपनी कमाई का एक अंश सदा-सर्वदा परमार्थ के कार्यों में नियोजित करते रहना मनुष्य का कत्र्तव्य ही नहीं एक महत्वपूर्ण उत्तरायित्व भी है।

इस तरह योग-उपासना, साधना एवं आराधना और दो तप-समयदान एवं अंशदान अर्थात् योग एवं तप के माध्यम से इस सुरम्य सृष्टि को सुन्दरतम बनाने के लिए परमात्मा ने अपनी प्रतिकृति मनुष्य को ही चुना है। अत: प्रत्येक मनुष्य जीवन के उद्देश्य, स्वरूप और सदुपयोग के बारे में जाने और सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखते हुए इस सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन को सफल-सार्थक करता चले तो नि:संदेह इसी जीवन में कत्र्तव्य-कर्म करते हुए अंतत: मोक्ष को, परमपद को प्राप्त हो सकता है।

अखिल विश्व गायत्री परिवार अर्थात् देव परिवार—

आज के इस वैज्ञानिक युग में अगणित प्रतिभाओं, विभूतियों का दिशा विशेष में एक साथ सहगमन अर्थात् परमात्मा की एकोअहम बहुस्याम के प्रत्यक्ष साकार रूप की परिकल्पना जैसी है। इस मानक में देवत्व की वृत्ति से युक्त परिवार का ऐसा समुच्च जो विश्व पटल में तेजी से उभर रहा है, कहना न होगा वही देव परिवार का नाम ही अखिल विश्व गायत्री परिवार है। यह उभार आज जनमानस की एक आश बन गई है कि निश्चित ही इस संगठन द्वारा इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य लाने का सत्प्रयास इस नारी सदी में सफल होकर रहेगा। जब धर्म-अध्यात्म के काय-कलेवर को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसी जायेगी तो उसका सार्वभौम स्वरूप परिष्कृत अध्यात्म-विज्ञान के रूप में ही मुखर होगा। देव परिवार इस पर खरा उतरेगा, यह लोगों की आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास भी है।

इसके प्रमाण स्वरूप नवयुग की नूतन संरचना एवं सतयुग की वापसी के निमित्त ऋषियुग्म गुरु सत्ता द्वारा जुटाए गये सरंजाम हैं, जिसके आधार पर सतयुग की वापसी सुनिश्चित है। विचार क्रान्ति अभियान-युग निर्माण योजना के शत-सूत्रीय कार्यक्रम भूमण्डल पर क्रमश: आच्छादित होंगे। महान् भारतवर्ष पुन: सोने की चिडिय़ा एवं जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठत होगा और समस्त विश्व को भारत का अजस्र अनुदान प्राप्त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

इसी दिशा में अखिल विश्व गायत्री परिवार के करोड़ों प्रज्ञा परिजनों का सर्वोत्कृष्ट प्रयास पुरुषार्थ निरंतर गतिमान है योजनबद्ध तरीके से। हिमालय की सूक्ष्म ऋषिसत्ताएँ एवं ऋषियुग्म की प्रत्यक्ष-परोक्ष शक्ति धाराएँ  साथ ही उनका शक्ति-सम्बल सदैव ही इस देवपरिवार के निमित्त सुरक्षित-संयोजित है। अब मिशन प्रचारात्मकता  एवं सुधारत्मकता के साथ-साथ अपनी रचनात्मकता में भी मुखर है। अत: रचनात्मक क्रान्ति को अब एक पूर्ण आन्दोलन के रूप में देश से आरंभ हो विश्वव्यापी का प्रयत्क्ष स्वरूप इसी इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य एवं नारी सदी के रूप में पूर्णत: परिलक्षित होता देखा जा सकेगा।

अब आगे-

अखिल विश्व गायत्री परिवार का रचनात्मक आन्दोलन : एक परिचय

वेब-पाठक मिशन के प्रणेता, प्रादुर्भाव, उद्देश्य, स्वरूप एवं आवश्यक सत्यों-तथ्यों आदि से अब भलीभाँति परिचित हो चुके होंगे। जैसा कि मिशन अपने उद्देश्य- मानव में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण साथ ही व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं नये युग के नूतन निर्माण में निरंतर संलग्र रहते हुए अब प्रचारात्मकता, सुधारात्मकता के साथ-साथ रचनात्मकता की ओर पूर्णत: केन्द्रित है। मिशन का यह रचनात्मक अभियान अपनी तरह, अपनी गति से करोड़ों प्रज्ञा परिजनों द्वारा उज्ज्वल भविष्य के साकार स्वरूप-सतयुग की वापसी हेतु विविध रूपों, चरणों में बराबर आन्दोलित है।

मिशन के शतसूत्रीय कार्यक्रमों में से सामयिक आन्दोलनों-साधना, स्वास्थ्य, शिक्षा,नारी जागरण, नशा उन्मूलन, कुरीति उन्मूलन, वृक्षारोपण-वृक्ष गंगा अभियान, गंगा सहित विविध जलस्रोतों के शोधन से लेकर गरीबी-बेरोजगारी निवारण के रूप में अति महत्त्वपूर्ण स्वालम्बन प्रधान लघु-कुटीर उद्योगों, अध्यव्यसायों के साथ ही साथ गौ संरक्षण-सवंर्धन के लिए भी अनवरत् प्रयास एवं पुरुषार्थरत है।

ऋषि प्रणित-कृषि जनित स्वावलम्बन प्रधान गौ एवं गोवंश तथा कृषि के मेरुदण्ड गौशालाओं के माध्यम से महत्त्वपूर्ण गो-उत्पादों तथा गोधन-गोवंश संरक्षण के लिए सम्पूर्ण भारतवर्ष से लेकर विदेशो में भी अखिल विश्व गायत्री परिवार के माध्यम से उल्लेखनीय कार्य सम्पादित होने जा रहे हैं। यह गायत्री साधना के साथ-साथ गो-सेवा के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को दशार्ता है। महान् भारतवर्ष, अखण्ड भारत के निर्माण में भारतीय संस्कृति के आधारभूतों— गंगा, गीता, गौ, गुरु एवं गायत्री की अक्षुण्ण भूमिका रही है और भविष्य में भी सदा-सर्वदा रहेगी।

हमारा मिशन रचनात्मक ट्रस्टों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सारे आधार स्तम्भों को प्रमुखता से जन-जन के लिए सर्वसुलभ कराने हेतु बराबर संलग्र है। रचनात्मक ट्रस्टों, प्रज्ञापीठों, शक्तिपीठों एवं प्रज्ञा संस्थानों के माध्यम से केन्द्रीय महत् योजनाओं का विकेन्द्रीकरण अपनी तरह की सार्वभौमिक क्रान्ति है। इस दिशा में सम-सामयिक योजनाएँ हैं जो केन्द्र के शर्तो-नियमों-उपनियमों के आधार पर व्यापक रूप में संचालित होने जा रही हैं। इस ओर देखते ही देखते जन-जन की पूर्ण सहभागिता सुनिश्चित होती चली जा रही है जो मिशन के गौरव-गरिमा में चार-चाँद ला रही है। मिशन की यह रचनात्मकता अनूठी है इसकी कोई सानी नहीं। कहना न होगा करोड़ों परिजनों के हरेक के एक घण्टे का समयदान एवं न्यूनतम अंशदान के माध्यम से अखिल विश्व गायत्री परिवार विश्वपटल पर तेजी से उभरता हुआ अमिट छाप छोड़ रहा है।

भौगोलिक एवं क्षेत्रीय स्तर पर आवश्यकता उपादेयता के अनुरूप रचनात्मक योजनाएँ समस्त भारतवर्ष एवं विदेशों में भी अपनी तरह से बराबर संचालित हैं और निरंतर प्रवाहमान हैं। अखण्ड भारत के नूतन निर्माण में गोवंश की सदा से महत् भूमिका रही है। पौराणिक आधार पर कृष्णावतार इसका एक अति महत्त्वपूर्ण साक्षी है कि भगवान श्रीकृष्ण का एक गोपाल नाम भी इसी कारण जगत् विख्यात् है। उनके अवतरण का महत् प्रयोजन जहाँ आततायियों का सर्वनाश रहा है वहीं दूसरी ओर अखण्ड भारत एवं सतयुग के निर्माण के लिए गोवंश के संरक्षण-संवर्धन हेतु एक मिशाल है। गोवंश-संरक्षक एवं गोपालक के रूप में उस अवतारी चेतना की एक विशिष्ट पहिचान बन गई है जो युगों युगों के लिए प्रेरणा एवं आदर्श के रूप में सदा के लिए स्थापित हो गया।

अखिल विश्व गायत्री परिवार की रचनात्मक क्रिया-कलाप वर्तमान संचालित योजनाएँ एवं भावी योजनाएँ जिसके आधार पर सतयुगी संकल्पनाएँ मूत्र्त रूप लेंगी और इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य  के रूप में पूर्णत: परिलक्षित होगा।

रचनात्मक स्वरूप एवं कार्यक्रम—

मिशन के रचनात्मक आन्दोलन के अंतर्गत सबसे पहला साधना आन्दोलन है जो मानवता के समग्र उत्थान की धुरी के रूप में तीनों कालों-भूत, वर्तमान एवं भविष्य में भी सार्वभौम उपादेयता के रूप में आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है, नित-निरन्तर संचालित है। यही वह धुरी है जिस पर मिशन केन्द्रित है। साधना पुरुषार्थ मानव जीवन का सर्वोत्तम और सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है। आत्म-चेतना का परिष्कार इसी पुरुषार्थ से बन पड़ता है। इसके दोनों ही रूपों स्थूल एवं सूक्ष्म की अपनी विशिष्टता, महत्ता सदैव ही बरकरार रहती है। स्थूल साधना अर्थात् बाह्य जगत के संतुलन के लिए शरीरगत उपक्रम हैं, जिन्हें नियमित और आदर्श दिनचर्या के द्वारा व्यवस्थित किया जाता है।

इसका सूक्ष्म रूप आत्मोत्थान की समग्र विधा पर अवलम्बित है जैसे आत्मबोध, तत्त्वबोध से आरंभकर स्वाध्याय-सत्संग का उपक्रम अपनाते हुए निर्दिष्ट गुरुमंत्र-गायत्री मंत्र के जप से आत्मा के ऊपर चढ़े कषाय-कल्मषों को धो डालने का क्रम है। निरन्तर एवं बोधयुक्त जीवनक्रम अपनाने से मलीनता दूर होती है और सद्गुणों में वृद्धि होती जाती है। यह आत्मलाभ के रूप में साधना की संसिद्धि है जिसे दैन्दिन जीवन में नियमिता के द्वारा हस्तगत किया जाता है। यह विश्वव्यापी आन्दोलन मिशन द्वारा स्वचालित है।

इसके तहत मानव मन के गहन अंतराल में छिपे बैठे कुसंस्कारों के परिमार्जन के साथ सुसंस्कारों के उभार से लेकर स्थापन तक के सम्पूर्ण प्रयास एक सामयिक आवश्यकता है। साधना से तात्पर्य है जीवन साधना अर्थात् मानव जीवन की सफलता सार्थकता हेतु उत्कृष्ट प्रयास-पुरुषार्थ। यह मार्गदर्शक सत्ता जो सद्गुरु की भूमिका में होता है, के अवलम्बन से पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। सद्गुरु का अवलम्बन अर्थात् सामथ्र्य का अवलम्बन है। समर्थता का अवलम्बन किसे प्राप्त होता है? जिसकी पात्रता विकसित होती है। इस प्रकार समर्थता को प्राप्त करना अर्थात् सद्गुरु की प्राप्ति है, अवलम्बन जिसे श्रद्धावान शिष्य ही प्राप्त कर सकता है। सामथ्र्यवान अर्थात् सद्गुरु और श्रद्धावान अर्थात् शिष्य। इस तरह गुरु-शिष्य का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध महत्तपूर्ण प्रयोजन को फलितार्थ करता है।

अमोघ गायत्री महामन्त्र के द्वारा आत्मचेतना के स्वरूप का बोध एवं जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर-

गुरु द्वारा निर्दिष्ट मंत्र का जप शिष्य के जन्म-जन्मांतरों के कषाय-कल्मशों के निवारण का अमोघ मंत्र है। गायत्री महामंत्र ही गुरुमंत्र है। इसी मंत्र को जप करके मानव से महामानव, देवमानव अर्थात् नर से नारायण बनने का यही अमोघ मंत्र है। इसकी दीक्षा लेकर निरंतर जप करने पर जन्मांतरों के पापों का क्षय हो जाता है साथ ही आात्मा में वह प्रकाश पैदा होता जाता है जिससे अपने स्वरूप का स्वत: आभास हो जाता है। मनुष्य अपने आपको पहचान जाता है। उसके अन्दर सद्बुद्धि एवं सद्विवेक का जागरण हो जाता है।

रचनात्मकता की दिशा में सर्वप्रथम है साधना आन्दोलन :-

यह साधना आन्दोलन मिशन का केन्द्रबिन्दु है जिसकी धुरी में मिशन अवलम्बित है। साधना आन्दोलन के अंतर्गत युगशक्ति गायत्री की उपासना-साधना हेतु देश एवं विदेशों में अनवरत एक अभियान के रूप में केन्द्र शान्तिकुंज से विभिन्न माध्यमों से इसे गति दी जा रही है। नये-पुराने सभी साधकों की सामूहिक जप युगान्तरीय स्तर पर संचालित है। समूह मन की अपरिमित शक्ति-ऊर्जा के प्रभाव से सूक्ष्म जगत् में परिशोधन एवं स्थूल जगत में अनुकूलन स्थापित होता है। इससे आत्मिक प्रगति का मार्ग खुलता चला जाता है। आत्मचेतना के व्यापक विस्तार के रूप में उपासना-साधना की महत्ता विश्वमानवता के हित निमित्त सर्वविदित है। गायत्री उपासक-साधक  तैयार करने का उपक्रम अपनी तरह से शान्तिकुंज के माध्यम से सतत संचालित है वैश्विक स्तर पर। आत्म चेतना के जागरण के लिए गायत्री महामंत्र का अमोघ प्रयोग विभिन्न अनुष्ठानों के माध्यम से अनवरत स्वसंचालित है जिसका ही सत्परिणाम है देव परिवार के विराट संगठन का वह विकसित स्वरूप जिसे आज सारी दुनिया अखिल विश्व गायत्री परिवार के रूप में जानती एवं स्वीकारती है।

स्वास्थ्य आन्दोलन-

मिशन की रचनात्मकता के अंतर्गत स्वास्थ्य आन्दोलन युग निर्माण मिशन अखिल विश्व गायत्री परिवार का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण आन्दोलन है। इसके अंतर्गत अक्षुण्ण स्वास्थ्य प्राप्ति के राजमार्ग जो ऋषिप्रणीत विधाओं में सन्निहित है, जन-जन के लिए सर्वसुलभ कराने साथ ही व्यावहारिक स्तर पर स्वस्थवृत सिद्धान्त का परिपालन किस भाँति हो, एक अभियान के रूप में व्यापक गति दी जा रही है। इसके अंतर्गत विभिन्न यौगिक उपक्रमों द्वारा भी स्वस्थता, निरोगिता के लिए शिविरों के माध्यम से स्वास्थ्य क्रान्ति आन्दोलित है। समग्र स्वास्थ्य प्रबंधन हेतु जगह-जगह आयोजनों के द्वारा जनमानस को भलीभाँति अवगत कराने का अपनी तरह का प्रयास-पुरुषार्थ मिशन की विशिष्ट रचनात्मकता है।

शिक्षा आन्दोलन-

मूल्यपरक शिक्षा-विद्या की उपादेयता भी सर्वविदित है। शिक्षा के साथ विद्या अर्थात् जीवन जीने की कला का ज्ञान भी शिक्षा का मूल उद्देश्य है। इसके अभाव में शिक्षा अधूरी है। इस प्रयोजन की आपूर्ति के लिए मिशन इसे एक व्यापक आन्दोलन के रूप में संचालित कर रहा है। इसके अंतर्गत व्यवसायपरक शिक्षा के अलावा नैतिक शिक्षा जो संस्कारजनित शिक्षा कहलाती है, के समावेश से शिक्षा पूरी होती है। इसे एक आन्दोलन के रूप में मिशन द्वारा संचालन किया जा रहा है। शिक्षा की अवधारणा में आज आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इस संदर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए देसंविवि की वेबसाइट से अधिकाधिक जानकारी हस्तगत की जा सकती है।

ऋषि-कृषिजनित स्वावलम्बन प्रधान रचनात्मक आन्दोलन-

मिशन का यह रचनात्मक आन्दोलन बहुत ही विशेष है। स्वावलम्बन प्रधान रचनात्मक आन्दोलन मिशन के करोड़ों परिजनों को आत्मनिर्भरता के लिए प्रेरित करता है। वरिष्ठ-कनिष्ठ सभी कार्यकत्र्ता इसे देश एवं विदेशों में भी व्यापक आन्दोलन के रूप में गति देने के लिए केन्द्रित हैं। इस अभियान के तहत् यह प्रयास-पुरुषार्थ किया जा रहा है कि हरेक स्वयंसेवी कार्यकत्र्ता अपनी आत्मनिर्भरता के लिए कोई न कोई अध्यव्यवसाय का सहारा व्यक्तिगत अथवा सामाजिक स्तर पर संचालित करने के लिए तत्पर हो। विभिन्न लघु कुटीर-उद्योगों के माध्यम से समर्थता-सशक्तता का प्रयास मिशन का एक  अनूठा प्रयास है। इसके विस्तार में जाते हैं तो हम पाते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में भी इसकी महत्ता-उपादेयता आज भी सम-सामयिक एवं समिचीन है। विज्ञान के इस युग में नि:संदेह जन-जन को स्वावलम्बी बनाने के लिए कुटीर उद्योगों का अपना विशेष महत्त्व है। इन्हीं अध्यव्यवसायों, कुटीर उद्योगों के माध्यम से अखण्ड भारत का निर्माण हुआ था और गाँव-गाँव एक ग्रामतीर्थ, ग्राम स्वराज के रूप में उभरकर मानव समाज के समग्र विकास की एक सुनिश्चित दिशा तय होती थी।

महान् भारतवर्ष के जगत् गुरु एवं सोने की चिडय़ा कहलाने में मूलत: प्राचीन भारत के आधारभूत तथ्यों, मानकों के महत्त्व का आज कोई सानी नहीं। आज भी भारतवर्ष की वसीयत और विरासत भारतवर्ष के लिए वरदान सिद्ध हैं। यहाँ की पुरातन पद्धतियाँ, संस्कृतियाँ आज भी सामयिक हैं। स्वावलम्बी एवं व्यवस्थित जीवन क्रम के लिए ऋषि प्रणीत कृषिजति अर्थोपार्जन-विपडऩ की सामाजिक व्यवस्था सदैव से अपनी तरह की रही है। इसी क्रम में गौ एवं गौशाला आधारित कृषितंत्र जो मूलत: ऋषिप्रणीत विधाओं पर आधारित है क्रमश: यहाँ उल्लेख करना अत्यावश्यक है जिससे भारतवर्ष के गौरव गरिमा की अक्षुण्णता कायम थी, अभी भी है आगे भी निरंतर रहेगी। इस सम्बन्ध में एक दृष्टि, एक अवलोकन है कि उन सत्यों, तथ्यों के बारे में जिसे अपनाकर भारतवर्ष सभी दृष्टि से सदैव समुन्नत रहा है फिर से सतयुग की वापसी के तौर पर पुर्नस्थापना समय की मांग और युग की पुकार है।

आइये, ऋषि-कृषि से जुड़े उन तथ्यों पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं भारतवर्ष के अर्थोपाजन में जिसकी अति महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। हम यहाँ गोधन एवं गौशाला तथा कृषि पर विशेष आलेख ज्ञापित करने जा रहे हैं जिसकी धुरी पर अन्यान्य रचत्मकता उभरती हैं, विकसित होती हैं जीवनोद्देश्य की ओर स्वत: प्रेरित करने में सदैव ही मददगार होती हैं।

भारतीय संस्कृति में गौ को गौमाता के रूप में सर्वोच्च स्थान—

गोधन एक ऐसी सम्पत्ति है जिसके बारे में वर्णन न केवल वेदों, कथा-पुराणों, आख्यानों में उल्लेखित है, वरन् आज के इस वैज्ञानिक युग में भी इस सम्पत्ति की महत्ता सर्वविदित है। गौ को भारतीय संस्कृति में माता की उपमा दी गई है। गाय को माँ के रूप में भारतीय संस्कृति में पूजन की परंपरा अति प्राचीन है। यही नहीं भगवान श्रीकृष्ण का अवतार का एक पहलू अखण्ड भारत के निर्माण में गौ की सर्वाधिक महत्ता उपादेयता है। गाय को माँ की उपमा मिलने मात्र से प्रतीत होता है कि जैसी माँ होती है और उसकी भूमिका जिस तरह शिशु के जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत तक होती है ठीक उसी तरह गो माता के उपकारों की भूमिका और महत्ता है। यह आज वैज्ञानिक अन्वेषण का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन चुका है।

यहाँ हम स्वावलम्बन प्रकल्प को लेकर लेख ज्ञापित कर रहे हैं कि किस तरह गो एवं गौशालाएँ अर्थतंत्र के मेरुदण्ड कहलाती हैं, सविस्तार जानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। गौ की महत्ता से भारतीय संस्कृति के पन्ने भरे पड़े हैं। गौ माता की एक-एक रोम-रोम में संव्याप्त प्राणतत्त्व की महिमा ऋषियों ने गायी है। वेदों-शास्त्रों के अनुसार गौ माता मेें समस्त 33 कोटिश देवताओं के निवास की बात कही गई है। स्वयं माँ लक्ष्मी जहाँ गाय के गोबर में वास करती हैं वही गोमूत्र में माँ गंगा का वास है। इस तरह उसकी महिमा अनिवर्चनीय है।

समर्थ एवं सशक्त भारत के अर्थतंत्र मेरुदण्ड गौशाला एवं गौमाता ही हैं। अत: गौवंश के संरक्षण, संवर्धन हेतु कितने ही लोगों ने अपनी जान दे दी है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जो अवतारी चेतना के रूप में जिनका धरती पर अवतरण हुआ था। गौमाता से परिपुष्ट होकर अखण्ड भारत के निर्माण करने में सक्षम हुए थे। गाय के पंचगव्य अमृततुल्य एवं औषधियुक्त  जीवनतत्त्व अमूल्य स्रोत माने जाते हैं और भौतिक-आध्यात्मिक चहुँमुखी उन्नति प्रगति के स्थूल माध्यम के रूप में धरती के वरदान सिद्ध है कामधेनु गोमाता के रूप में।

अखिल विश्व गायत्री परिवार गो-सेवा, संरक्षण-संवर्धन के लिए गौशालाओं के माध्यम से निरंतर प्रयास-पुरषार्थरत है। राष्ट्र के सर्वतोमुखी उन्नति में गोवंश की महत्ता अनिवर्चनीय है। अत: इस पर वृहद् शोध स्तर के कार्य सम्पन्न हो रहे हैं और गाय माता की महत्ता गायन से लेकर गौ के वरदानों, उपकारों से मनुष्यता किस तरह ऋणि है अनुसंधानों से जाना जा सकता है।

गौ की महत्ता को लेकर मानव जीवन के सभी पहलुओं में दूध-चीनी की भाँति उपादेयता अनिवर्चनीय है। इसी को लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा देशव्यापी-विश्वव्यापी आन्दोलन का रूप दिया गया है। करोड़ों परिजन इसकी महिमा गान के साथ जीवन का अभिन्न अंग के रूप में गो सेवा, गायत्री साधना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में दैन्दिन जीवन में समाहित किया है।

इस तरह स्वावलम्बी जीवन समर्थ एवं सशक्त राष्ट के अर्थतंत्र में गोवंश की महत्ता को व्यापक विकास-विस्तार एवं आन्दोलन के रूप में देखा जा सकता है। जगह-जगह गौ शालाएँ स्थापित कर गौ संरक्षण, सवंर्धन एवं गो सेवा के लिए प्रेरित प्रचारित किये जा रहे हैं। सतयुग की वापसी एवं उज्ज्वल भविष्य के सरंजाम में इनकी उपादेयता सर्वोच्च है। प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक सभ्य भारत के समग्र विकास के साथ-साथ सतत् उज्ज्वल भविष्य की स्वर्णिम संकल्पनाओं का एक आधार स्तम्भ गोमाता भी है। गौ के अगणित अनुदानों-वरदानों से मानवता ऋणि है। इस प्रोजेक्ट के समग्र प्रकल्प का आधार गोमाता ही है। गो सेवा और गायत्री साधना शिविर में आए आगन्तुकों से सेवा-साधना के प्रतिफल का शोध स्तरीय कार्य संचालन की महत् योजना है। इस संबंध में इस संस्थान के रचनात्मक उद्देश्यों के बारे में सविस्तार अवगत कराना इस वेबसाइट का प्रयोजन है।

ऋषियुग्म हमारी गुरुसत्ता की परोक्ष प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में साथ अखिल विश्व गायत्री परिवार के मुख्यालय शान्तिकुंज-हरिद्वार के वर्तमान प्रमुख श्रद्धेय द्वय डॉ0 प्रणव पण्ड्या एवं शैलबाला पण्ड्या साथ ही करोड़ों युवाओं के प्रेरक मार्गदर्शक एवं आदर्श डॉ0 चिन्मय पण्ड्या जी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में गायत्री-गो सेवा-साधना संस्थान जहाँ योग एवं परम्परागत चिकित्सा का शोध कार्य होना है, एक शोध-केन्द्र के रूप में विकास-विस्तार से लेकर दूरगामी भवितव्यता की महत् योजना है, सविस्तार जानें, अवलोकन करें एवं इस प्रकल्प के निमित्त अपनी सहभागिता सुनिश्चत करने का भावभरा आह्वान-आमन्त्रण अनुरोध है।

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एक दृष्टि :-

गायत्री-गो सेवा-साधना संस्थान

(योग एवं पारंपरिक चिकित्सा शोध केन्द्र)

प्रस्तावना :-

अखिल विश्व गायत्री परिवार मुख्यालय एवं युगतीर्थ-गायत्री तीर्थ शान्तिकुंज हरिद्वार द्वारा चलाये जा रहे रचनात्मक आन्दोलन-अभियान के अंतर्गत संचालित गो-सेवा, गौवंश-संरक्षण एवं सवंर्धन तथा स्वावलम्बन प्रधान गो आधारित गो-उत्पादों साथ ही राष्ट्र की समर्थता-सशक्तता एवं भारतीय संस्कृति के आधारभूत मूल प्रतीक-प्रतिमान-गौ, गंगा, गुरु, गीता एवं गायत्री को जन-मन में स्थापित करने के लिए गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट के माध्यम से विश्वमानवता हित अनथक प्रयास पुरुषार्थ किया जा रहा है।

उपरोक्त जितने भी सामयिक आन्दोलन हैं, उन्हें केन्द्र शान्तिकुंज द्वारा भारतवर्ष के समस्त भू-भाग से लेकर विदेश तक की धरती में सफलता एवं कुशलतापूर्वक संचालन की महत् योजना है। यह भारतीय संस्कृति के उन्नयन हेतु एक विशिष्ट पुरुषार्थ के रूप में है, जिसे आज के परिप्रेक्ष्य में जानना समझना और अमल में लाना न केवल समय की माँग है, वरन् युग की पुकार भी है।

मानव जीवन में गौ की महत्ता, माँ गंगा की उपादेयता, सामथ्र्यवान गुरुसत्ता का अमोघ गुरुज्ञान साथ ही प्रत्यक्ष-परोक्ष दिव्य संरक्षण, अनासक्त कर्मयोग का प्रतिपाद्य विषय-श्रीमद् भगवद्गीता का दिव्य सन्देश एवं आद्यशक्ति-पराशक्ति-वेदमाता, देवमाता, विश्ववंद्य माँ गायत्री की उपासना सर्वविदित है। अखिल विश्व गायत्री परिवार अपनी रचनात्मकता के लिए इसी रूप में विश्व प्रसिद्ध है। विज्ञान के इस युग में भी रचनात्मक क्रान्तियों की उतनी ही आवश्यकता एवं उपादेयता है जितनी कि विज्ञान द्वारा मानव के सुख-सुविधाओं के लिए भी निरन्तर प्रयास पुरुषार्थ किया जा रहा है। अध्यात्म जगत के अन्वेषक इस सत्य-तथ्य पर अवस्थित हैं कि मानव विकास के चाहे जितने भी साधन जुटाए जाएं, जब तक विज्ञान का अध्यात्म के साथ समन्वय नहीं होगा, मानव का विकास अधुरा ही रहेगा। समग्र विकास तभी संभव है जब इनका समन्वय होगा। तब वही विज्ञान का स्वरूप अध्यात्म-विज्ञान के रूप में उभरेगा। रचनात्मकता के माध्यम से यही परिस्थितियाँ विनिर्मित करने का उत्कृष्ट प्रयास-पुरुषार्थ युग निर्माण मिशन द्वारा किया जाना इस युग की माँग की आपूर्ति होगी। इसी दिशा में गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट का गठन अपनी तरह की रचनात्मकता है।

इस कड़ी में गायत्री परिवार रचत्मक ट्रस्ट बैसपाली-रायगढ़, छ.ग. भी मिशन के उद्देश्यों की आपूर्ति में गिलहरी-सी छोटी भूमिका निभाने के लिए पूर्णत: संकल्पित है साथ ही प्रतिबद्ध भी। मिशन का उद्देश्य मनुष्य में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण केन्द्रित है और व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र से लेकर नये युग का नूतन निर्माण ही एकमात्र लक्ष्य है। यही इस संस्थान का भी लक्ष्य है अलग कुछ भी हटकर नहीं, भले ही भौगोलिक परिस्थतियाँ निश्चित ही अनुकूल-प्रतिकूल हो सकती हैं पर मिशन का एक मात्र लक्ष्य ही मूल में केन्द्रित है। अत: सामयिक सप्त आन्दोलनों को एक जगह गति प्रदान करना इस संस्थान का प्रमुख उद्देश्य है।

युग निर्माण योजना मिशन के आदर्श सूत्र-सिद्धान्तों के व्यावहारिक मूत्र्तता का क्षेत्र युग निर्माण की इकाई व्यक्ति से आरंभ होकर एक नये युग के निर्माण तक का विस्तृत क्षेत्र है। इसमें सभी गाँवों से लेकर शहरों तक रहवासी आ जाते हैं। शहरों का विकास आधुनिकीकरण के साथ-साथ जिस तरह से होता चला जा रहा है अब आवश्यकता है शहरों के मोटापे को कम करने के साथ ही गाँवों के रूप में दूबलेपन को दूर करने की। गाँव में पर्याप्त जमीन होती है इसी के साथ जहाँ जमीन है, वहीं कृषि संभव है और जहाँ कृषि है, उसकी टिकाऊ एवं उन्नत कृषि के लिए पशुधन के रूप में गौ एवं जैविक खाद हेतु गोबर-गोमूत्र की आवश्यकता जो गाँव में अथवा गौशाला में ही संभव है। इसी के साथ गोउत्पाद एवं लघु कुटीर उद्योगों का चलन भी गाँव में सहजता एवं प्रमुखता से संभव है। अत: इस दृष्टि से गाँव ही रचनात्मक कार्यों के लिए उपयुक्त क्षेत्र हैं।

इस प्रकार गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट, बैसपाली-रायगढ़, छ.ग. का गायत्री-गो सेवा-साधना योग एवं पारंपरिक चिकित्सा शोध-केन्द्र का मिशन केन्द्रित एक ही उद्देश्य एवं लक्ष्य है। इसी की आपूर्ति को यह संस्थान भी समर्पित है। यह संस्थान अभी शैशवकाल से गुजर रहा है और जैसे-जैसे इसका विकास-विस्तार होता चला जायेगा, अपने समय पर इसका मूत्र्त स्वरूप उभर कर आयेगा। यह संस्थान बहुउद्देश्यों से अभिप्रेरित है अर्थात् अतीत की प्रेरणा, वर्तमान की भाव संवेदना एवं उज्ज्वल भविष्य की सुखद-संकल्पना पर आधारित है।

जन-जन की सहभागिता अर्थात् समयदान एवं अंशदान से पोषित-संचालित की योजना-

यह संस्थान जन-जन के सहयोग-सहकार एवं समयदान-अंशदान से पोषण-संचालन की योजना है। इसमें गायत्री परिवार के अलावा भी समाज के हर वर्ग से आह्वान है कि उज्ज्वल भविष्य की संकल्पनाओं एवं सतयुग की वापसी हेतु सभी के सम्मिलित प्रयास-पुरुषार्थ से रचनात्मक ट्रस्ट द्वारा कुशलतापूर्वक संचालन की महत् योजना है। इस संस्थान में समय-समय पर सभी तरह के शिविरों का संचालन होगा। विभिन्न शिविरों-योग, आयुर्वेद, समस्त नेचरोपैथी चिकित्सा के ओपीडी भी संचालित होंगे। इनके विशेषज्ञों द्वारा नि:शुल्क कैम्प आयोजित होंगे। इस प्रकार परंपरागत चिकित्सा शोध-केन्द्र के रूप में इसके विकास-विस्तार एवं स्वरूप प्रदान करने की दूरदर्शी संकल्पनाएँ हैं।

यहाँ सभी तरह की प्रतिभाएँ अपनी सेवाएँ प्रदान कर सकते हैं। सबके अनुभव, ज्ञान एवं सम्मिलित प्रयास से यह संस्थान एक आदर्श मॉडल के रूप में उभरे और न केवल क्षेत्रीय वरन् प्रांतीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की पहचान का स्वरूप उभर सके, ऐसी बड़ी योजना,संकल्पना का लक्ष्य है जो गुरुसत्ता की असीम अनुकम्पा एवं मातृ संस्थान केन्द्र शान्तिकुंज के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन साथ ही अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख परम श्रद्धेय डॉ प्रणव पण्ड्या एवं शैलबाला पण्ड्या साथ ही देसंविवि के माननीय प्रति कुलपति महोदय युवाओं के आदर्श डॉ. चिन्मय पण्ड्या जी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में यह संस्थान मिशन के विविध उद्देश्यों की आपूर्ति की दिशा में निरंतर प्रयासरत है। गिलहरी-सी एक छोटी भूमिका निभाने में एक दिन यह संस्थान अवश्य कामयाब होगा, यह आशा ही नहीं परिपूर्ण विश्वास भी है।

मिशन का उद्देश्य ही संस्थान का महत् उद्देश्य है जिसे रचनात्मकता के माध्यम से मूत्र्तता प्रदान करना एकमात्र ध्येय-लक्ष्य है। इसमें सभी तरह की प्रतिभाओं का सादर आमंत्रण है। छ.ग. प्रान्त धान का कटोरा कहलाता है इस दृष्टि से उन्नत एवं टिकाऊ तथा वैज्ञानिक कृषि उत्पाद भी एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इसका शिक्षण-प्रशिक्षण भी वैज्ञानिक तरीके से हो, इसका प्रयोग-परीक्षण भी यहाँ से संचालित होगा। इस वैज्ञानिक युग में जैविक कृषि को बढ़ावा देना तथा जन-जन के मन में इसे स्थापित करना एक महान् उद्देश्य की दूरदर्शी संकल्पना अभिप्रेरित है। यह कार्य निश्चित ही अपने समय पर ही होगा और मूत्र्त रूप लेगा इसमें कोई दो राय नहीं, कोई संशय नहीं। जैसे-जैसे सहयोग-समर्थन प्राप्त होता जायेगा मिशन का यह कारवा भी उसी आधार पर बढ़ता, विकसित होता चला जायेगा।

उपरोक्त महत् उद्देश्यों की आपूर्ति के लिए हमारे पास वर्तमान में पर्याप्त जमीन है साथ ही भविष्य के विकसित रूप हेतु भी पर्याप्त संभावना है और आगे भी बरकार रहने की पूरी उम्मीद रहेगी। इसके विकास-विस्तार के लिए पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से नेक बढ़ाते जा रहे हैं। परोक्ष गुरुसत्ता की प्रेरणा से यह अभिप्रेरित है अत: वह समर्थ सत्ता आगे भी सतत प्रेरणा के रूप में मार्गदर्शन करती रहेगी, यही नहीं गुरसत्ता का परोक्ष शक्ति-संबल भी प्राप्त होता चला जायेगा इसमें भी कोई संशय नहीं।

वर्तमान का लक्ष्य आगामी वर्ष 3 से 6 फरवरी 2023 माघी पूर्णिमा को 108 कुण्डीय यज्ञ के माध्यम से इस हेतु जन जागृति के साथ आवश्यक निर्माणों हेतु शिलान्यास-भूमि पूजन समारोह आयोजित है। इस यज्ञायोजन को सफल-सार्थक बनाने के लिए इसमें सभी तरह की प्रतिभाओं का भावभरा आमंत्रण-अनुरोध है। साथ ही इस पुनीत उद्देश्य में बढ़-चढक़र सहभागिता सुनियोजन की विनम्र प्रार्थना-निवेदन भी है।

समय-समय पर आवश्यक सूचनाएँ इस वेब साइट के माध्यम से वेब पाठकों एवं मिशन के प्राणवान कार्यकत्र्ताओं तथा जन-सामान्य से लेकर प्रबुद्ध तक संस्थान की वर्तमान एवं भावी योजनाओं से बराबर अवगत हो सकेंगे। सहभागिता के सूत्र-समयदान-अंशदान एवं प्रतिभादान के रूप में एक अंश विराट भगवान के निमित्त निरंतर लगाने, पुण्यलाभ प्राप्त करने, जीवन सफल-सार्थक करने का भावभरा निवेदन है। समयदान के रूप में 1 घण्टा प्रतिदिन एवं अंशदान मु_ी फण्ड के रूप में अपनी कमाई का एक अंश साथ ही प्रतिभादान के रूप में अपनी योग्यता-पात्रता एवं क्षमता का भी एक अंश समाज रूपी विराट् भगवान के लिए नियोजित करने की विनती है।

इस तरह इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य के लिए गौ सेवा-गायत्री साधना एवं योग तथा परंपरागत चिकित्सादि के माध्यम से स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज के नूतन निर्माण के लिए इस युग की मांग है प्रतिभा परिष्कार एवं समय की मांग है परिष्कृ त प्रतिभा का यथेष्ट सुनियोजन के माध्यम से सतयुगी की वापसी-सतयुगी संभावनाओं को साकार करने के सामूहिक प्रयास एवं संगठन के रूप में उभार मनुष्य के सम्पूर्ण समस्याओं का निदान है, इस युग की आवश्यकताओं की आपूॢत है। जिसके लिए युग निर्माण मिशन का उद्भव हुआ है मनुष्य में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग अवतरण के लक्ष्य को लेकर।    अत: हम रहें या न रहें पर मिशन रहे, के भाव से युग शक्ति गायत्री एवं यज्ञ रूप सत्कर्म से मानव जीवन लक्ष्य एवं पूर्णता को प्राप्त हो यही परोक्ष सत्ता से जगत् कल्याण के लिए संस्थान द्वारा हार्दिक मंगल कामना-प्रार्थना है।

गो-सेवा एवं गायत्री साधना के माध्यम से जन-जन में इसकी महत्ता-उपादेयता और अनिवार्य आवश्यकता हेतु गाँव-गाँव से लेकर घर-घर तक यह आन्दोलन जन-मन में स्थापित करने की विशाल योजना है। इसी के साथ इस संस्थान में शोध स्तरीय योग एवं पारंपरिक चिकित्साकल्प का संचालन होगा। इसी तरह अपने समय पर विभिन्न रचनात्मक आन्दोलनों को अपनी तरह से भौगोलिक एवं क्षेत्रीय आधार पर गति प्रदान करने का एक टकसाल है जो समयसाध्य-श्रमसाध्य प्रक्रिया है। कालांतर में यह मूत्र्त रूप लेगा जिसका प्रत्यक्ष लाभ गाँवों के ग्रामीण जनता को ग्रामतीर्थ योजना-ग्राम स्वराज्य के रूप में मिल सकेगा।

योग एवं पारंपरिक चिकित्सा शोध केन्द्र :-

योग एक जीवनशैली का नाम है, जीवन दृष्टि का नाम है साथ ही इसका स्थूल रूप अष्टांग योग के रूप में महर्षि पतंजलिकृत योगसूत्रों को जीवन व्यवहार में आचरण कर शरीरगत-मनोगत आधि-व्याधि के निवारण के लिए योगा इन डेली लाइफ के तहत योगविधा जीवन का एक अभिन्न अंग बने, इस दृष्टि से इस दिशा में अखिल विश्व गायत्री परिवार अपने प्रज्ञायोग के माध्यम से जीवनशैली एवं जीवन दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन लाने को संकल्पित-प्रतिबद्धित है।

दूसरी तरह पारंपरिक चिकित्सा के अंतर्गत परम्परगत चिकित्सकीय उपचार पद्धति जो पुरातन एवं अधुनातन का विकसित व्यावहरिक स्वरूप का उत्कृष्ट प्रयास होगा। जिसमें असाध्य रोगों तक की परंपरागत चिकित्सा के माध्यम से रोगों के उपाय-उपचार का क्रम संचालन होगा। उसमें अपेक्षित परिणामों के डाटा का संचयन होगा जिसे आगे चलकर शोध विषय के रूप में इस पर स्वतंत्र शोध कार्य संचालित होंगे। अनुसंधानजनित प्रमाणित डाटा जो आधनिक चिकित्सा पैथी से हटकर होंगे, मनुष्यता के सर्वांगपूर्ण उपचार में किस हद तक उसकी अहम् भूमिका होगी, यह एक अध्ययन का स्वतंत्र विषय होगा।

गो-सेवा एवं गायत्री साधना का अन्योन्याश्रित संबंध :-

गायत्री साधना एवं गो सेवा का अन्योन्याश्रित संबंध स्वयं परम पूज्य गुरुदेव के जीवनक्रम में समाहित था। गौ को भारतीय संस्कृति में माता की संज्ञा-उपमा दी गई है। यही नहीं भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़ें है इसकी महत्ता से। गाय के गोबर एवं गोमूत्र के औषधीय गुणों से लेकर व्यावहारिक दैन्दिन जीवन में अर्थतंत्र की सक्षमता में अहम् भूमिका है। साथ ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में न्यायोपार्जित अर्थोपार्जन की भूमिका मानव जीवन में किस तरह अहम् रहती है, यह भी एक अध्ययन का स्वतंत्र विषय है। इस प्रकार ऋषि एवं कृषि संस्कृति को अपनाकर मानव के सर्वांगपूर्ण कायाकल्प का विधान दूरदर्शी ऋषियों के चिंतन में किस तरह समाहित थी और आज भी उसकी सम-सामयिकता साथ ही भविष्य में भी उसकी उपादेयता अनिवार्यता की सुनिश्चितता का प्रतिपादन इस संस्थान के उद्देश्यों में से एक है।

इस तरह अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वार संचालित रचनात्मक आन्दोलनों के विकेन्द्रीकरण से लक्षित गायत्री परिवार ट्रस्ट आधारित साथ ही मातृ संस्था से सम्बद्ध होकर गायत्री परिवार ट्रस्ट आधारित रचनात्मकताएँ मातृ संस्था के आदर्शों के आधार पर संचालित होने की प्रेरणा से प्रेरित है। इसी के आधार पर ग्रामतीर्थ एवं ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना साकार परिलक्षित होगी। सतयुग की वापसी के ये सारे सरंजाम ऋषियुग्म गुरुसत्ता के दिव्य एवं प्रखर चिंतन की मूर्तता का प्रतीक-प्रतिरूप होगा, जिसे मानवता आत्मसातकर निहाल हो सके, जीवन धन्य बना सके, सफल-सार्थक कर सके, मिशन द्वारा विकेन्द्रीकरण का एक अनुपम प्रयास पुरषार्थ है। इसकी दूरगामी परिणति आशातीत होगी।

यह सामाजिक व्यवस्था से संचालित होगा। गुरुदेव के कथनानुसार पूँजी पर समाज का नियंत्रण होगा समाज की सामाजिक संपत्ति समाज के ही हित निमित्त लेगेगी। इसके सुव्यवस्था संचालन पूज्य गुरुदेव के सुझाए अमोघ सूत्र समयदान-अंशदान की पुण्य परम्परा से ही संचालन की समुचित व्यवस्था रहेगी। इसी आधार पर ही इसकी भवितव्यता भी सुनिश्चित है। साथ ही समूह मन का सामूहिक प्रयास-पुरुषार्थ एक अपनी तरह का उदाहरण होगा, जो अनूठा होगा। स्वावलम्बन शिक्षण प्रधान एवं स्वावलम्बी जीवन प्रधान सामाजिक व्यवस्था का कृषिजनित समस्त कार्यों का सुसंचालन ग्रामीण परिवेश में भौगोलिकता के आधार पर गठित होगी।

कृषि के क्षेत्र में भूमि का बंजरपन रासानिक खाद की देन है। अगर यही स्थिति बनी रहेगी तो वह दिन दूर नहीं कि विकास की गति अवरुद्ध होगी साथ ही उल्टे विनाश की ओर गमन होगा यह भवितव्यता एवं आधुनिक विकासजनित रिएक्शन मानव के ऊपर किस तरह पड़ेगा। इन सभी से सावधानी पूर्वक बचते बचाते हुए जनशक्ति के सामथ्र्य को सुनियोजित दिशा प्रदान करना एक महान् योजना है।

कृषितंत्र का आधार मूलत: गोवंश एवं गौशालाएँ ही हैं। ऋषि निर्देशों एवं सूत्रों के आधार पर जीवन व्यवहार में आचरित किये जाने पर शतप्रतिशत सफलता सुनिश्चित है। अधिक उत्पाद विकास एवं उपभोक्तवाद के आधार पर वर्तमान में समस्याएँ अपनी तरह की खड़ी हो गई हैं, जिनका समाधान ढूँढना भी अत्यावश्यक हो गया है। समाधान एक ही है चिर परंपरागत विरासतों की साज-सँभाल अर्थात् दिव्य द्रष्टा के दिव्य ज्ञान से निसृत धाराओं-विधाओं को पुरातन एवं अधुनातन के संयुक्त परिवर्ति स्वरूप प्रदानकर बहुविकल्पीय प्रयोजन में ज्ञान-विज्ञान सम्पदा का नियोजन किया जाय।

इसी आधार पर समर्थ एवं सशक्त राष्ट्र का नूतन निर्माण होगा। इस सुनिश्चित भवितव्यता के प्रति जागरुकता एवं बुद्धिमत्ता साथ ही विवेकशीलता के आधार पर यथा हरसंभव विज्ञान के इस युग में भी उन मूल्यों की पुर्नप्रतिष्ठापना आज की समस्याओं का न केवल समाधान है, वरन् मानव सभ्यता के विकास का परिशोधित उच्चतम मानदण्ड भी कहलायेगा।

आज के वैज्ञानिक युग मे नि:संदेह कृषि विकास-अनुसंधान से लेकर उद्योग-धंधों का महत् कार्य एक सीमा तक उसकी उपादेयता पाथेय है, लेकिन जहाँ छोटे अध्यव्यवसायों की बात आती है, इसके खत्म होने से समस्याएँ सुलझेंगी नहीं, वरन् उलझते ही जायेंगी। मनुष्य चाहे जितना भी आधुनिक एवं वैज्ञानिक विकास के सापानों को पार कर जाये, वस्तुत: जहाँ जीवनकला एवं जीवन में सर्वांगपूर्णता की बात आयेगी वहाँ उसकी अपनी मौलिकता का रूप अपनी जगह सदा-सर्वदा अटल रहेगी। उदारहरणार्थ विकास के नाम पर मनुष्य आज कितना भी सभ्य प्रतीत हो यदि उसमें सुसंस्कारिता नहीं, भाव संवेदना एवं उच्च विचारण का अभाव है तो विकास समग्र विकास हरगिज नहीं कहला सकता।

मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता बहुत थोड़ी ही है खाने के लिए रोटी, तन ढँकने के लिए कपड़ा और सिर को छत की ही मूलभूत आवश्यकता होती है। उपभोक्तावाद एवं पृथ्वी के रत्नों के दोहन से सम्पन्नता आ भी जायेगी तो उसके साथा विपदा भी आती है। वह विपदा प्रकृति के असंतुलित, अमर्यादित दोहन से उत्पन्न होती है। आज प्रकृति के असमाप्त भण्डार जल एवं प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं यह किसकी देन है? आधुनिक विज्ञान के एवं उद्योग के नाम से कल-कारखाने, कम्पनियाँ मानव के सुख-सुविधा के लिए अम्बार लगा रहे फिर भी सुख की चाहत में क्षणिक सुख की प्राप्ति तो होती है, परन्तु स्थाई या आनन्द की अनुभूति विकास के जिन आधारों पर अवलम्बित है वह ऋषिजनित दिव्य ज्ञान भण्डार से निस्सृत होती है। ऋषियों की थाती ज्ञान के उस अकूत भण्डार से परम सुख-शान्ति-सन्तोष का अनुभव हो सकेगा जो आत्मज्ञान की प्राप्ति तक के लिए आधारभूत के रूप में मूल में वही ज्ञान-संपदा ही परिलक्षित होगी।

अमोघ ज्ञान-विज्ञान अर्थात् ऋषि-कृषिजनित तंत्र का पुर्नविकास-विस्तार

स्थाई आनन्द की अनुभूति कैसे हो? आज गिरते स्वास्थ्य एवं ढेरों बीमारियों के मूल कारण में जाने पर हम पाते हैं कि श्रमशीलता के अभाव के साथ-साथ रासायनिक खाद से उत्पन्न आहार जिसमें उस प्राणतत्त्व का अभाव होता है प्रकृति के सान्न्ध्यि में प्राणसंचरित होकर जीवनशक्ति के उपार्जन एवं विकास में जिनका महत् योगदान है। अर्थात् कृषि विज्ञान के आधार पर आज भी विकसित वैज्ञानिक पद्धति से कृषि उत्पाद हो तो भी कोई शिकायत नहीं, जैविक कृषि को बढ़ावा देकर भूमि को बंजर होने से रोका जा सकता है और जबकि रासायनिक खाद से भूमि बर्बर हो रही है साथ ही अधिक उपज के चक्कर में पीछे से स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। इसलिए आज सख्त आवश्यकता है जीवन के मूल प्राकृतिक स्रोतों का ही मूलत: प्रयोग करते हुए कृषि अनुसंधान में अपेक्षित परिणाम उपार्जित किया जा सकता है।

इस दृष्टि से गाँवों के किसानों को जैविक कृषि के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करना अखिल विश्व गायत्री परिवार की रचनात्म्क योजनाओं का मूख्य लक्ष्य है। जैविक खाद से धीरे-धीरे बंजर भूमि उर्वर भूमि में परिवर्तित होगी साथ ही अच्छी उपज होगी और पौष्टिकता सहित प्राणतत्त्वों से अभिपूरित उत्पाद अपनी ही तरह की होगी जिसकी मार्केटिंग भी होड़-सी लगेगी।

इस क्षेत्र अपेक्षित क्रान्ति की सख्त आवश्यकता है। अत: इस दृष्टि से गो-सेवा, गोपालन, गोवंश का संरक्षण-संवर्धन आज नितांत आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है। गाय-बैल एवं अशक्त बूढ़ी-बंजर गायों को बूचडख़ाने मेे कटने से रोकना और जीवनपर्यंत उनकी सेवा-सुश्रुषा करना भारतीय संस्कृति के कत्र्तव्य के साथ धर्म भी बताया गया है। इस दृष्टि से गौ आधारित स्वावलम्बन प्रधान कुटीर उद्योगों का संचालन भी युग की मांग एवं समय की पुकार है।

एक गाय अपनी अपने जीवन में जितनी मानव की सेवा लेती है उससे 100 गुना लाभ रिटर्न के रूप में पंचगव्य सहित मरणोपरांत उसके शरीर के प्रत्येक भाग एक जैविक खाद से लेकर उसके अंग अवयवों के आवश्यक उपयोगिता तक की उपादेयता सिद्ध होती है। इसलिए बूढ़ी-बंजर सहित सभी गोधन की रक्षा करना मानव का परम कत्र्तव्य है। इसकी उपेक्षा से ही मनुष्य के सामने आज परिस्थितियाँ विकृत एवं भयावह हैं। बूचढख़ाने में कटने से उनकी आह-चीख-चित्कार सूक्ष्मजगत में ईथर से टकराकर बर्बरता एवं क्रूरता की प्रतिक्रिया मानव में भी हिंसा से लेकर दुव्र्यसनी एवं मनुष्यताविहीन आचरण के उत्तरदायी जीव-जगत पर कुठाराघात पहुँचाने की परिणति है।

्र     निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि यदि गो धन-सम्पदा को संरक्षित-संवर्धित समय रहते नहीं किया गया तो परिस्थितियाँ और भी विकट विषम एवं भयावह होंगी और अंततोगत्वा उसकी शरण में आने पर ही मानवता को त्राण को मिलेगी। जीव-जगत पर्यावरण के एक घटक हैं, मानव विकास-उन्नययन के प्रमुख द्योतक हैं। प्राण वायु के भण्डारण में इनकी भी विशेष भूमिका है जहाँ वृक्षों-पेड़-पौधों से शुद्ध ऑक्सिजन उत्सर्ग होता है वहाँ समष्टि के जीव-जगत नैसर्गिग रूप से आत्मसातकर परिवर्तित-परिवर्धित रूप में प्रकृति को वापिस करती हैं जिससे इकोसिस्टम संतुलित रहती है। अत: आवश्यकता है प्रकृति एवं समष्टि के चराचर-जीव-जगत जो संतुलन का कार्य स्वत: संचालित करती है, उस पर संतुलन की जिम्मेदारी छोडक़र प्रकृति संतुलन में मनुष्य अधिकाधिक सहयोग प्रदान करे और समष्टि के अनुदानो-उपादानों से निहाल सके।

इस तरह सतयुग की वापसी के ये सारे सरंजाम जो ऋषियुग्म की सत्ता ने जुटा रखी है यथासमय उनके प्रेरित-संप्रेषित विचारों का अनुगमन मानव करे तो नि:संदेह प्रकृति संतुलन से लेकर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता की आपूर्ति सदैव ही होती रहेगी। यह एक वैज्ञानिक सम्मत प्रतिपादन है साथ ही आध्यात्मिकता की दृष्टि से उपकार का प्रतिउपकार अर्थात् क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में प्रकृति के घटनाक्रम दुहराये जाते हैं।

अखिल विश्व गायत्री परिवार अपने अपने रचनात्मक ट्रस्ट के माध्यम से सामयिक आन्दोलनों को गति देने के लिए पूर्णत: संकल्पित, प्रतिबद्धित है। इस अभियान में जिसकी जितनी बढ़-चढक़र भूमिका होगी वह आज के समय के अनुरूप उतना बड़ा रथी-महारथी स्तर का सत्पुरुषार्थ माना जायेगा जो कभी अस्त्र-शस्त्र में निपुण व्यक्तितों को उक्त रथी-महारथी स्तर की उपमा दी जाती थी। ्र

आज युग की मांग एवं समय की एक ही पुकार है कि प्रतिभा, पात्रता का निरंतर विकास हो और फिर इनका यथेष्ट सुनियोजन हो। साथ ही वैज्ञानिक पद्धति जो जीवन विकास में सहायक के रूप में प्रादुर्भित हुई है, ज्ञान-विज्ञान को ध्वंस नहीं, वरन् सृजन में उसका संयोजन हो तो निश्चित ही इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य साथ ही सतयुग की पुन:वापसी एक सुनिश्चित सत्य-तथ्य के रूप में इसी जीवन में स्पष्ट घटित प्रतीत होगी इसमें कोई अत्युक्ति नहीं।

गायत्री-गो सेवा-साधना संस्थान (योग एवं पारंपरिक चिकित्सा शोध केन्द्र) के उद्देश्य-

अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुंज हरिद्वार द्वारा चलाये जा रहे रचनात्मक आन्दोलन के विकेन्द्रित विभिन्न प्रकल्पों को मिशन के आदर्श और सिद्धान्तों के आधार पर गति प्रदान करने के साथ-साथ ग्रामतीर्थ योजना के तहत सभी दृष्टि से गाँवों का समग्र विकास प्रमुख उद्देश्य है। मानव में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग अवतरण, व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं नये युग का नूतन निर्माण अखिल विश्व गायत्री परिवार विचारक्रान्ति अभियान-युग निर्माण योजना का महत् उद्देश्य है। इस उद्देश्य की आपूर्ति मिशन द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न प्रचारात्मक, सुधारात्मक एवं रचनात्मक आन्दोलनों को जन-जन तक पहुँचाने को युग की माँग की आपूर्ति एवं युगधर्म कहा है।

युग की माँग है प्रतिभा परिष्कार एवं समय की माँग है परिष्कृत प्रतिभा का यथेष्ट सुनियोजन। इस महत् प्रयोजन की आपूर्ति युग निर्माण मिशन-शान्तिकुंज, हरिद्वार द्वारा चलाये जा रहे रनात्मक आन्दोलनों से ही संभव है। मिशन के रचनात्मक आन्दोलनों का उद्देश्य, स्वरूप एवं सदुपयोग वृहद स्तर पर है। इसमें अगणित प्रतिभाएँ, विभूतियाँ व्यावहारिक मूत्र्त रूप प्रदान करने के लिए निरन्तर संलग्र हैं। मिशन अपने रचनात्मक आन्दोलनों, विभिन्न स्वरूपों को विकेन्द्रित करते हुए भौगोलिक, क्षेत्रीय एवं स्वावलम्बन की प्रधानता की दृष्टि से संचालित कर रहा है।

भारत एक कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ 75 से 80 प्रतिशत की आबादी अब भी गाँवों में निवास करती है। अत: भारत भू-भाग के प्राय: सभी क्षेत्रों में न्यूनाधिक कृषि कार्य ही सम्पन्न होते हैं। विज्ञान के इस युग में शहरों में बड़े उद्योग-धन्धे संचालित हैं जिसे मोटे और गाँव पतले होते जा रहे हैं। गाँवों से शहर की ओर लोग पलायन भी करते हैं अध्यव्यवसाय एवं रचनात्मकता के अभाव में। अत: हमारा मिशन युगीन समस्याओं के समाधान के लिए प्रतिबद्धित-केन्द्रित है। गाँवों को अपने आप में एक स्वराज्य की उपमा दी गई है। जहाँ गाँवों में छोटे-छोटे कुटीर उद्योग धन्धे संचालित होते थे उनकी जगह आज वैज्ञानिक युग के कारण बड़े उद्योगों ने ली है। अत: गाँवों के समग्र विकास की कल्पना ग्राम तीर्थ के रूप में की गई है। जहाँ गाँवों में कृषि कार्य से लेकर लघु कुटीर उद्योगों द्वारा सामाजिक-सन्तुलन की सुन्दर व्यवस्था बनी थी। जहाँ कृषि है वहीं पशुधन संरक्षित हैं। विकसित विज्ञान की देने उपभोक्तवाद एवं विकासवाद के कारण कृषि भूमि से लेकर पशुधनों में सर्वश्रेष्ठ गोधन-गोपालन एवं संंरक्षण-संवर्धन का कार्य होता था, सिमटकर रह गया। यही नहीं उर्वर भूमि अर्थात् उन्नत कृषि हेतु गोबर खाद की जगह रासायनिक खादों के प्रयोग से भूमि बंजर होने लगी। रासायनिक खाद की उपज में वह प्राण तत्त्व-जीवनीशक्ति में अभाव के कारण शरीरगत, मनोगत असाध्य रोग-शोक में बृद्धि होती चली जा रही है।

इस प्रकार आधुनिक वैज्ञानिक युग में जहाँ जहाँ उपभोक्ता एवं विकासवाद ने नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं, वहाँ, उनकी आधारशिला जर्जर है। विकासवाद का यह मानक ऋषि प्रणीत विधा के अंतर्गत सर्वथा निसिद्धि है जब तक कि उसमें सन्तुलन न हो तब तक। उदाहरणार्थ नि:संदेह कृषि कार्य के निमित्त साधन-उपकरण एवं अधिकाधिक उत्पाद हेतु विज्ञान के द्वारा प्रयास किया गया है, पर वस्तुत: वह विकास का मानदण्ड है ही नहीं, बल्कि उल्टी विपत्ति ही आन पड़ी है। मानव जीवन के लिए रोटी, कपड़ा एवं मकान मूलभूत आवश्यकता है। विकासवाद-भोगवाद एवं संग्रहवाद ने पर्यावरण से लेकर भूमि, पशुधन आदि सभी के लिए समस्याएँ पैदा कर दी है। श्रम की जगह मशीनें आ गईं, इस कारण पशुपालन में खासकर गौओं का जीवन दूभर हो होने लगा। गो बूचडख़ाने में कटने लगे गो तस्करी होने लगी, गो मांस के व्यापार होने होने लगे। जबकि दूध  भारत के इस कृषि प्रधान देश में कभी दूध की नदियाँ बहती थीं। जब गाएँ ही नहीं रहेंगी तो शुद्ध दूध कहाँ से उपलब्ध हो सकेगा। प्राचीन भारत में दूध से लेकर पंचगव्यों से शारीरिक-मानसिक उपचार होते थे। गाय-भैंस के गोबर खाद से कृषि उपज बलिष्ठता से युक्त होती थी, पर्यावरण संतुलित होता था। समय पर वर्षा होती थी, उन्नत कृषि, टिकाउऊ खेती के रूप में स्वस्थता के मानदण्ड होते थे। आज परिस्थितियाँ ठीक विपरीत हो गईं है। अगर ऐसी ही स्थिति बनी रही तो एक दिन धीरे-धीरे सभी का मूल रूप पूर्णत: खत्म हो जायेगा। रोग, शोक, पीड़ा-पतन पराभाव से मानव समाज विकृत होता चला जायेगा। अत: समय रहते युग की समस्याओं का समाधान न निकाला गया तो एक दिन मनुष्यता भी नष्ट हो जायेगी।

इस प्रकार पीड़ा-पतन निवारण ही मिशन का मुख्य उद्देश्य है जो व्यावहारिक रूप में रचनात्मक आन्दोलनों के द्वारा ही संभव एवं साकार हो सकेगा। अत: इसी दिशा में अखिल विश्व गायत्री परिवार की योजनाएँ विकेन्द्रीकरण के रूप में सुनियोजित संचालित होने जा रही हैं। मिशन के रचनात्मक योजनाओं का कार्यक्षेत्र के रूप में गाँव का समग्र विकास ही समस्त समस्याओं का समाधान है। यही गाँव ग्रामतीर्थ के रूप में विकसित हो सतयुग की वापसी के आधार स्तम्भ होंगे।

इसीलिए रचनात्मक आन्दोलन हेतु गायत्री परिवार ट्रस्टों के माध्यम से रचनात्मक कार्य को सम्पन्न करने की अभूतपूर्व योजना बनी है जो अपनी तरह की है और युगीन समस्याओं के सम्पूर्ण समाधान के लिए हर दृष्टि से ट्रस्ट समय के साथ सक्षम होते जायेंगे।

इसी क्रम में गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट बैसपाली-रायगढ़ भी समस्त रचनात्मक आन्दोलनों को मिशन के आदर्शों-सिद्धान्तों के आधार पर अपनी तरह से गति प्रदान करने हेतु संकल्पित-प्रतिबद्धित है। यही नहीं भौगोलिक, क्षेत्रीय, प्रान्तीय स्तर पर गावों के समग्र विकास एवं ग्राम तीर्थ की अवधारणा को मूत्र्त रूप प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है। मिशन की धुरी साधना आन्दोलन के जन जागृति से लेकर गो-सेवा, गौ संरक्षण-संवर्धन, रासायनिक खादमुक्त उन्नत कृषि उपज के शिक्षण-प्रशिक्षण के अलावा स्वावलम्बन प्रधान लघु कुटीर उद्योंगों के भी शिक्षण-प्रशिक्षण की विशाल योजना है। साथ ही मिशन के स्वास्थ्य आन्दोलन तहत् योग एवं परंपरागत चिकित्सा हेतु शोध केन्द्र के रूप में विकास-विस्तार देने की भावी योजनाएँ जो यथासमय उभरकर स्वरूप लेंगी।

योग एक जीवन शैली का नाम है। इसके माध्यम से जीवनशैली एवं दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन की उच्च संकल्पना अभिप्रेरित है। इसके दोनों ही रूपों स्थूलपरक योगासनों से लेकर पतंजलि अष्टांग योग की साधना समाहित है। परंपरागत चिकित्सा से आशय विभिन्न पारंपरिक चिकित्सा जैसे प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेदिक चिकित्सा, पंच तत्त्व चिकित्सा-सूर्य चिकित्सा, जल चिकित्सा, मिट्टी चिकित्सा, भाव चिकित्सा, एक्यूप्रेशर चिकित्सा, गो मूत्र एवं गोमय द्वारा चिकित्सादि पारंपरिक चिकित्सा के माध्यम से अक्षुण स्वास्थ्य प्राप्ति की दिशा में एक सार्थक एवं शोधपरक कार्य की विस्तृत योजना है।

इस प्रकार एक जगह पर सामयिक रचनात्मक प्रकल्पों को गति देने के उद्देश्य से अभिप्रेरित इस ट्रस्ट की मूल उद्देश्य है। गायत्री परिवार ट्रस्ट बैसपाली रायगढ़ द्वारा संचालित इस ट्रस्ट की पहिचान हेतु इसका नामकरण गायत्री-गो सेवा-साधना संस्थान योग एवं पारंपरिक चिकित्सा शोध केन्द्र रखा है। इस प्रकार यह संस्थान नवयुग के नूतन निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाये और ग्राम तीर्थ योजना के माध्यम से उज्ज्वल भविष्य की दिशा में निरन्तर सत्पुषार्थ का संपादन होता रहे और इसमें समाज के सभी वर्गों का महत् पुरुषार्थ समयदान-अंशदान के रूप में नियोजित हो। सभी के समूह मन का उत्कृष्ट प्रयास प्रतिभा के निखार के रूप में उभरे, ऐसी सद्पे्ररणाओं, दूरदर्शिताभरी महान् योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए यह संस्थान संकल्पित है।

इसी उद्देश्य की आपूर्ति हेतु सेवा-साधना पुरषार्थ का छोटा रूप कछुए की चाल के रूप में उभर रहा है और जैसे-जैसे संगठन बनता चला जायेगा उसमें मजबूती आयेगी और निश्चित एक दिन समाज का हर वर्ग लाभान्वित होगा। क्षेत्रीय स्तर पर बीज में छिपे न दिख पडऩे वाले वृक्ष की तरह यह अंकुरित बीज पौधे से पेड़ बनता हुआ प्रान्तीय स्तर पर विशाल रचनात्मक योजना का केन्द्र बनेगा, ऐसी आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है।

यह कार्य कैसे संभव होगा, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है, क्योंकि रचनात्मकता के लिए कार्य योजना को साकार रूप प्रदान के लिए उतनी तादाद में कार्यकत्र्ताओं की आवश्यकता है। इसी के लिए गायत्री साधक हर गाँव में तैयार करने का लक्ष्य है और गायत्री परिवार के एक मजबूत संगठन जो सेवा-साधना की धुरि पर केन्द्रित हो उज्ज्वल भविष्य के लिए नेक कदम बढ़ाते चलने का है। क्षेत्रीय एवं ग्रामीण हरेक साधक जो सेवा-साधनापरायण है इस संस्थान में आकर 9 दिन की गायत्री साधना सम्पन्न करे और गोमाता की सेवा करे, यहाँ शुद्ध-सात्विक आहार-विहार की योजना है जिसमें रासायनिकखाद मुक्त आहार सुलभ कराने की योजना है जो औषधि का काम करे। योग जो एक जीवन शैली का नाम है आदर्श और नियमित दिनचर्या के माध्यम से साथ ही शरीरगत आधि-व्याधि से लेकर असाध्य रोगों तक के निवारण के लिए परंपरागत चिकित्सा अर्थात् समस्त पारंपरिक-प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से पूर्ण शारीरिक-मानसिक स्वस्थता का प्रयास किया जायेगा।

इस महत् कार्य के लिए समय-समय पर नि:शुल्क विभिन्न स्वास्थ्य शिविरों का यहाँ से संचालन होगा। स्वस्थता के मानदण्ड डाटा संकलन पर शोध कार्य होगा। इस प्रकार स्वस्थ शरीर-स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज की दिशा में क्रमश: नेक कदम बढ़ाते चलने जन-जन को लाभ पहुँचाने की विस्तृत योजना है।

यहाँ निर्मित आवासीय साधना भवन एवं प्रशिक्षण हॉल में स्वावलम्बन प्रधान प्रशिक्षण से लेकर जैविक कृषि उसके मेरुदण्ड गो एवं गोशाला आधारित ऋषि-कृषि प्रणीत योजनाओं लेकर गोमय औयौगि के निवारण हर गाँव में  साथ-साथ साकार रूप साथ ही शिक्षण-प्रशिक्षणपरक रचना इिस संबंध में पूज्य गरुवर का कथन है— ‘‘आने वाले समय में शहरों का मुटापा हलका होगा और दुबले गाँव, कस्बे बनकर मजबूत दुष्टिगोचर होने लगेंगे। सरकारी बैंक अभी तो बड़े उद्योगों के लिए बउ़ही सुविधाएँ देने हैं, पर अगले दिनों यह भी संभव न होगा। आने वाले दिनों में कुटीर-उद्योग ही प्रमुख होंगे। ये गाँवों-कस्बों में चलेंगे और सहकारी समिति स्तर पर उनका ढाँचा खड़ा होगा।’’- अखण्ड-ज्योति, जुलाई 1984

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